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नाकामियाब जिंदगी....!

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नजाने कितने ख्वाब देखें थे जिंदगी से, सब टुटतेहि चले जा रहें है। जहा की हर एक कामियाबी से, सब रिश्ते रूठतेही चले जा रहें है। पता नही मंजिल कब हाँसिल होगी, पता नही इस शाम की सुबह कब लौट आयेगी, इस अंधेरे में दर बदर ठोकरे खाने से, जवां होकर भी पैर थकतेहि जा रहें है। रूठें भी तो किस्से रूठे??! दोशी ठहराए भी तो किसे ठहराए??! इस वक्त ने ही जनाज़ा निकाला है हमारा इस जमाने से, वरना हर एक मुश्किल से तो बचपन से ही लड़ते आ रहें है। आज ये वक्त आ गया, के उस खुदासे भी नफरत होने लगी, शिकवा है इस खुदा से,  के कहा गयी मेरी हसीन जिंदगी????!, लौटा देना जरूर उसे भरकर कामियाबी से, वरना इस जिंदा जिस्म से, जान निकली जा रहीं है।                               -- ग. सु. डोंगरे